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सबरीमला मंदिर प्रकरण में पुनर्विचार याचिका पर शीघ्र सुनवाई से न्यायालय का इनकार

नई दिल्ली- उच्चतम न्यायालय ने सबरीमला मंदिर में सभी आयु वर्ग की महिलाओं को प्रवेश की अनुमति देने के उसके फैसले के खिलाफ दायर पुनर्विचार याचिका पर तत्काल सुनवाई से मंगलवार को इनकार कर दिया। न्यायालय ने संकेत दिया कि याचिका पर दशहरा अवकाश के बाद विचार किया जा सकता है।
     प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति के एम जोसेफ की पीठ ने नेशनल अयप्पा डिवोटीज एसोसिएशन की अध्यक्ष शैलजा विजयन की दलील पर विचार किया। विजयन ने अपने वकील मैथ्यूज जे नेदुम्पारा के माध्यम से दायर पुनर्विचार याचिका में दलील दी कि पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने प्रतिबंध हटाने का जो फैसला दिया वह ‘‘पूरी तरह असमर्थनीय और तर्कहीन है।’’
     पीठ ने कहा, ‘‘इसे उचित समय पर सूचीबद्ध किया जाएगा।’’ पीठ ने कहा कि वैसे भी पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई कक्ष में होगी, ना कि खुली अदालत में।
     डिवोटीज एसोसिएशन की ओर से पेश वकील ने फैसले पर रोक लगाने की भी अपील की और कहा कि तीर्थयात्रा के लिए 16 अक्टूबर को मंदिर खोला जाना है।
     बहरहाल, पीठ ने कहा कि पुनर्विचार याचिका पर दशहरा की छुट्टियों के बाद ही सुनवाई की जा सकती है।
एसोसिएशन के अलावा एक अन्य याचिका में उच्चतम न्यायालय के 28 सितंबर के आदेश पर पुनर्विचार करने की मांग की गई है। नायर सर्विस सोसायटी (एनएसएस) ने यह याचिका दायर की है।
     तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने 28 सितंबर को 4:1 के बहुमत से दिए फैसले में कहा था कि मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी लगाना लैंगिक भेदभाव है और यह परम्परा हिंदू महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन करती है।
     विजयन की पुनर्विचार याचिका में दलील दी गई है कि ‘‘वैज्ञानिक या तार्किक आधार पर, धार्मिक आस्था का आकलन नहीं किया जा सकता।’’
 याचिका में कहा गया है, ‘‘यह धारणा बेबुनियाद है कि यह फैसला क्रांतिकारी है जिससे माहवारी को लेकर अशुद्धि या प्रदूषण संबंधी धब्बा दूर होता है। इस फैसले का स्वागत उन पाखंडी लोगों ने किया है जो मीडिया की सुर्खियां बनना चाहते हैं। मामले की गुणवत्ता के आधार पर भी यह फैसला पूरी तरह असमर्थनीय और तर्कहीन है।’’
नायर समुदाय के कल्याण के लिए काम करने वाले संगठन एनएसएस की ओर से दायर दूसरी याचिका में कहा गया है कि चूंकि भगवान ‘नैष्ठिक ब्रह्मचारी’ हैं, इसलिए 10 वर्ष की आयु से कम और 50 वर्ष की उम्र से अधिक की महिलाओं को ही उनकी पूजा करने की अनुमति है, ऐसे में महिलाओं को पूजा से प्रतिबंधित करने की कोई परंपरा नहीं है।
     याचिका में कहा गया है कि चूंकि खास उम्र सीमा वाली महिलाओं को पूजा करने का अधिकार पहले से प्राप्त है, ऐसे में सिर्फ 40 साल के इंतजार (उम्र के मायने में) को बहिष्कार या प्रतिबंध नहीं कहा जा सकता है और ऐसे में यह फैसला कानूनन गलत है।
     एनएसएस ने कहा कि अगर अनुच्छेद 14 के तहत बराबरी को सामान्य आधार बनाया गया और अनिवार्य धार्मिक परंपराओं को तर्क शक्ति के सिद्धांत पर परखा गया तो कई आवश्यक धार्मिक प्रथाएं अमान्य हो जायेंगी और धर्म भी अस्तित्वहीन हो जायेगा। (भाषा) 

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