जगतगुरू शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती महाराज का जन्मदिन संदेश
पावन संदेश
ज्ञान ही परमात्मा की प्राप्ति है और वही परमात्मा का दर्शन है
हमारे वेद कहते हैं कि सृष्टि के प्रारम्भ में एक ब्रम्ह ही था, जिसका लक्षण है- सत्य, ज्ञान और अनन्त। इसी से जीव और जगत् की उत्पत्ति होती है। जीव ब्रम्ह का अंश है, ब्रम्ह अंशी है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:’’ यह नियम है कि जब तक अंश अंशी से नहीं मिल जाता तब तक उसे शान्ति नहीं मिलती। समुद्र के जल से जो भाप बनती है, वही मेघ बनते हैं। मेघ समुद्र के अंश को वायु के द्वारा हिमालय ले जाते हैं। समुद्र का अंशरूप वह जल बर्फ के रूप में परिणत होकर स्थित रहता है जैसे ही उष्णता आती है, वह बर्फ गंगा का रूप लेकर तब तक रहता है जब तक समुद्र में पहुंच नहीं जाता। इसी प्रकार मिट्टी के ढेले को वेग से आकाश में उछालते हैं पर जब वह अपने अंशी मिट्टी में आ जाता है तभी उसको शान्ति मिलती है। इसी प्रकार जीव जब परमात्मा से मिलता है तभी उसको शान्ति मिलती है। परमात्मा की प्राप्ति के संबंध में श्रुति कहती है-
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्।।
इसका अर्थ है- यह आत्मा न तो प्रवचन से मिलता है और न मेधा से मिला है, बहुत अधिक श्रवण से भी नहीं मिलता है। जिसका यह साधक वरण कर लेता है, उसी के सामने परमात्मा अपना स्वरूप प्रकट करता है। वरण के सम्बन्ध में भगवान भाष्यकार शंकराचार्य ने कहा है-
‘यमेव स्वात्मानमेष साधको वृणुते प्रार्थयते तेनैव आत्मना वरित्रा स्वयमात्मा लभ्य:’
अर्थात् यह साधक जिस परमात्मा का वरण कर लेता है, उसी को उसकी प्राप्ति होती है। दूसरा एक मत यह भी है कि परमात्मा जिस साधक का वरण करता है, उसको परमात्मा की प्राप्ति होती है। यह जानना आवश्यक है कि वरण क्या है। प्राचीन काल में स्वयंवर की प्रथा थी। बहुत से राजा पंक्तिबद्ध होकर बैठ जाते थे और कन्या वरमाला लेकर उनके बीच में आकर जिसके गले में माला डाल देती थी, वही उसके द्वारा वरण किया जाता था। इस प्रक्रिया में कन्या जिसको चाहती है उसके अतिरिक्त सबकी उपेक्षा कर देती है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि जो अध्यात्म का साधक है, वह परमात्मा को ही प्राप्त करना चाहता है और सब प्रकार का प्रलोभन छोड़ देता है।
भगवान अपने भक्त को कुछ भी भोग मोक्ष देना चाहें, उन सबको अस्वीकार करके भक्त केवल भगवान को चाहता है, यही उसका वरण है। जो उसकी उत्कण्ठा है, उसको देखकर ही ईश्वर उसका वरण करता है। प्राणी का सच्चा स्वार्थ ईश्वर की प्राप्ति में ही है। ईश्वर के वियोग से ही वह जन्म मरण के चक्र में पड़कर दु:खों का अनुभव कर रहा है। विनय पत्रिका में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-
‘‘जीव तब ते हरि से विलगानो, जब ते देह गेह निज मान्यो,
माया बस स्वरूप बिसरायो, तेहि भ्रम ते नाना दु:ख पायो’’
समस्त दु:खों की आत्यान्तिक निवृत्ति और परमानन्द की प्राप्ति, जीव का परम पुरूषार्थ है। ब्रम्ह की प्राप्ति से ही परमानन्द का अनुभव हो सकता है और दु:खों की निवृत्ति आनुषंगिक रूप से स्वाभाविक ही हो जाती है। जो जिज्ञासु है, वह परमात्मा के निर्गुण रूप को प्राप्त करना चाहता है और दूसरा जो भक्त है, वह परमात्मा के सगुण रूप को चाहता है। दोनों ही जब अपने जिज्ञास्य और आराध्य को छोड़कर दूसरी ओर से अपना मुंह मोड़ लेते हैं तभी उनकी साधना सफल होती है। इसमें एक दृष्टान्त है-
एक राजा अपनी राजधानी में परिवार को छोड़कर दिग्विजय के लिये निकला और सर्वत्र विजय प्राप्त करके लौटते समय अपने स्वजन और पत्नियों के पास संदेश भेजा कि हम शीघ्र ही लौट रहे हैं, जिसको जो वस्तु अच्छी लगती हो, वह पत्र में लिखकर भेज दे। सब रानियों ने अपनी-अपनी अभीष्ट चीजें लिखकर भेज दीं। जो सबसे छोटी रानी थी, उसने पत्र में ‘आप’ लिखकर भेज दिया ‘मैं तुम्हें चाहती हूँ।’ जिसने जो मांगा था वह वस्तु उसके पास भेजकर राजा स्वयं छोटी रानी के पास चला गया। इसका अर्थ यह हुआ कि समस्त वैभव से युक्त राजा उसका हो गया।
हमारे उपनिषद् कहते हैं जो ब्रम्हवित् है, वह सभी भोगों को एक साथ प्राप्त कर लेता है। हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि ज्ञान ही परमात्मा की प्राप्ति है और वही परमात्मा का दर्शन है। जब भगवान श्रीकृष्ण यदुवंश में अवतरित हुए, सबने उनको देखा लेकिन उनका स्वरूप बोध बहुत कम लोगों को हुआ। अपने इष्टदेव की सच्ची पहचान वह है जब हम उनकी प्रत्येक लीलाओं में उनकी ब्रम्हरूपता का दर्शन करें। भक्तों का एक उदाहरण है-
गोस्वामी तुलसीदास जी ने हनुमान जी से रामजी का दर्शन कराने की प्रार्थना की। हनुमान जी ने कहा कि चित्रकूट चलो। गोस्वामी जी चित्रकूट आये। राम लक्ष्मण उनके सामने से निकल गए, उन्होंने समझा ये कोई राजकुमार हैं। हनुमानजी ने पूछा- क्या तुमने राम का दर्शन किया? वे तुम्हारे सामने से निकल गए। तुलसीदास जी बोले मैंने तो उन्हें राजकुमार ही समझा, मुझे उनका दर्शन नहीं हुआ, कृपा करके फिर से दर्शन कराइये। दूसरी बार मन्दाकिनी के तट पर जब वे अपनी आँखे मूंदकर भगवान का स्मरण करते हुये ठाकुर जी के लिये चन्दन घिस रहे थे इसी बीच भगवान आये, उनकी कटोरी का चन्दन लेकर लगाने लगे, उसी समय हनुमानजी तोते का रूप धारण करके कहने लगे ‘चित्रकूट के घाट पर भई सन्तन की भीर, तुलसीदास चन्दन घिसे तिलक देत रघुवीर’ तुलसीदास ने आँख खोलकर देखा भगवान श्रीराम चन्दन लगा रहे हैं, उनको दर्शन तब हुआ जब गुरू रूप तोते ने दर्शन कराया, इसी प्रकार परब्रम्ह परमात्मा साधक का अपना आत्मा ही है जब तक गुरू का उपदेश नहीं मिलता तब तक ब्रम्हात्मैक्य का साक्षात्कार नहीं होता। गुरू और ईश्वर के द्वारा वरण किये जाने का एक रूप यह भी है। आध्यात्मिक मार्ग के पथिकों के लिये उपर्युक्त दृष्टान्त मार्गदर्शन कर सकता है। साधक के लिये अपनी साधना का लक्ष्य केवल ईश्वर की प्राप्ति होना चाहिये। मन से समस्त वासनाएं दूर हो जाने पर जब रामचरण की लो लग जाती है तब योगक्षेम की चिन्ता भगवान स्वयं करते हैं।
‘मन ते सकल वासना भागी, केवल राम चरण लो लागी।’
परमात्मा की प्राप्ति के लिये नि:स्पृह होना आवश्यक है। जो कर्मकाण्डात्मक वेद सकाम कर्मों के अनुष्ठान के फलस्वरूप परलौकिक सुख का वर्णन करते हैं, उससे नि:स्पृह होकर ही ब्रम्ह जिज्ञास हो सकती है।
जो साधक शास्त्रोक्त सदाचार का पालन नहीं करता, जिसका मन अशान्त है और साधना द्वारा सांसारिक फल की आकांक्षा रखता है, वह परमेश्वर के अभिमुख नहीं हो पायेगा, इसलिये जो अध्यात्म के साधक हैं, उनको शास्त्रोक्त वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार धर्म का पालन करना चाहिये।
यदि कर्म और भावना में वैषम्य रहा तो उसका परिणाम अशुभ हो जाता है जैसे हमारा कोई मित्र है, हम उससे प्रेम करते हैं पर उसके हित के विरूद्ध आचरण करते हैं तो वह प्रेम नहीं टिक पाता। हम भगवान् से प्रेम करते हैं पर भगवान् के बनाये हुये रास्ते पर नहीं चलते हैं तो हमारी लगन छूट सकती है।
- स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती
जगद्गुरू शंकराचार्य
ज्योतिष् एवं द्वारका शारदापीठाधीश्वर
ज्ञान ही परमात्मा की प्राप्ति है और वही परमात्मा का दर्शन है
हमारे वेद कहते हैं कि सृष्टि के प्रारम्भ में एक ब्रम्ह ही था, जिसका लक्षण है- सत्य, ज्ञान और अनन्त। इसी से जीव और जगत् की उत्पत्ति होती है। जीव ब्रम्ह का अंश है, ब्रम्ह अंशी है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:’’ यह नियम है कि जब तक अंश अंशी से नहीं मिल जाता तब तक उसे शान्ति नहीं मिलती। समुद्र के जल से जो भाप बनती है, वही मेघ बनते हैं। मेघ समुद्र के अंश को वायु के द्वारा हिमालय ले जाते हैं। समुद्र का अंशरूप वह जल बर्फ के रूप में परिणत होकर स्थित रहता है जैसे ही उष्णता आती है, वह बर्फ गंगा का रूप लेकर तब तक रहता है जब तक समुद्र में पहुंच नहीं जाता। इसी प्रकार मिट्टी के ढेले को वेग से आकाश में उछालते हैं पर जब वह अपने अंशी मिट्टी में आ जाता है तभी उसको शान्ति मिलती है। इसी प्रकार जीव जब परमात्मा से मिलता है तभी उसको शान्ति मिलती है। परमात्मा की प्राप्ति के संबंध में श्रुति कहती है-
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्।।
इसका अर्थ है- यह आत्मा न तो प्रवचन से मिलता है और न मेधा से मिला है, बहुत अधिक श्रवण से भी नहीं मिलता है। जिसका यह साधक वरण कर लेता है, उसी के सामने परमात्मा अपना स्वरूप प्रकट करता है। वरण के सम्बन्ध में भगवान भाष्यकार शंकराचार्य ने कहा है-
‘यमेव स्वात्मानमेष साधको वृणुते प्रार्थयते तेनैव आत्मना वरित्रा स्वयमात्मा लभ्य:’
अर्थात् यह साधक जिस परमात्मा का वरण कर लेता है, उसी को उसकी प्राप्ति होती है। दूसरा एक मत यह भी है कि परमात्मा जिस साधक का वरण करता है, उसको परमात्मा की प्राप्ति होती है। यह जानना आवश्यक है कि वरण क्या है। प्राचीन काल में स्वयंवर की प्रथा थी। बहुत से राजा पंक्तिबद्ध होकर बैठ जाते थे और कन्या वरमाला लेकर उनके बीच में आकर जिसके गले में माला डाल देती थी, वही उसके द्वारा वरण किया जाता था। इस प्रक्रिया में कन्या जिसको चाहती है उसके अतिरिक्त सबकी उपेक्षा कर देती है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि जो अध्यात्म का साधक है, वह परमात्मा को ही प्राप्त करना चाहता है और सब प्रकार का प्रलोभन छोड़ देता है।
भगवान अपने भक्त को कुछ भी भोग मोक्ष देना चाहें, उन सबको अस्वीकार करके भक्त केवल भगवान को चाहता है, यही उसका वरण है। जो उसकी उत्कण्ठा है, उसको देखकर ही ईश्वर उसका वरण करता है। प्राणी का सच्चा स्वार्थ ईश्वर की प्राप्ति में ही है। ईश्वर के वियोग से ही वह जन्म मरण के चक्र में पड़कर दु:खों का अनुभव कर रहा है। विनय पत्रिका में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-
‘‘जीव तब ते हरि से विलगानो, जब ते देह गेह निज मान्यो,
माया बस स्वरूप बिसरायो, तेहि भ्रम ते नाना दु:ख पायो’’
समस्त दु:खों की आत्यान्तिक निवृत्ति और परमानन्द की प्राप्ति, जीव का परम पुरूषार्थ है। ब्रम्ह की प्राप्ति से ही परमानन्द का अनुभव हो सकता है और दु:खों की निवृत्ति आनुषंगिक रूप से स्वाभाविक ही हो जाती है। जो जिज्ञासु है, वह परमात्मा के निर्गुण रूप को प्राप्त करना चाहता है और दूसरा जो भक्त है, वह परमात्मा के सगुण रूप को चाहता है। दोनों ही जब अपने जिज्ञास्य और आराध्य को छोड़कर दूसरी ओर से अपना मुंह मोड़ लेते हैं तभी उनकी साधना सफल होती है। इसमें एक दृष्टान्त है-
एक राजा अपनी राजधानी में परिवार को छोड़कर दिग्विजय के लिये निकला और सर्वत्र विजय प्राप्त करके लौटते समय अपने स्वजन और पत्नियों के पास संदेश भेजा कि हम शीघ्र ही लौट रहे हैं, जिसको जो वस्तु अच्छी लगती हो, वह पत्र में लिखकर भेज दे। सब रानियों ने अपनी-अपनी अभीष्ट चीजें लिखकर भेज दीं। जो सबसे छोटी रानी थी, उसने पत्र में ‘आप’ लिखकर भेज दिया ‘मैं तुम्हें चाहती हूँ।’ जिसने जो मांगा था वह वस्तु उसके पास भेजकर राजा स्वयं छोटी रानी के पास चला गया। इसका अर्थ यह हुआ कि समस्त वैभव से युक्त राजा उसका हो गया।
हमारे उपनिषद् कहते हैं जो ब्रम्हवित् है, वह सभी भोगों को एक साथ प्राप्त कर लेता है। हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि ज्ञान ही परमात्मा की प्राप्ति है और वही परमात्मा का दर्शन है। जब भगवान श्रीकृष्ण यदुवंश में अवतरित हुए, सबने उनको देखा लेकिन उनका स्वरूप बोध बहुत कम लोगों को हुआ। अपने इष्टदेव की सच्ची पहचान वह है जब हम उनकी प्रत्येक लीलाओं में उनकी ब्रम्हरूपता का दर्शन करें। भक्तों का एक उदाहरण है-
गोस्वामी तुलसीदास जी ने हनुमान जी से रामजी का दर्शन कराने की प्रार्थना की। हनुमान जी ने कहा कि चित्रकूट चलो। गोस्वामी जी चित्रकूट आये। राम लक्ष्मण उनके सामने से निकल गए, उन्होंने समझा ये कोई राजकुमार हैं। हनुमानजी ने पूछा- क्या तुमने राम का दर्शन किया? वे तुम्हारे सामने से निकल गए। तुलसीदास जी बोले मैंने तो उन्हें राजकुमार ही समझा, मुझे उनका दर्शन नहीं हुआ, कृपा करके फिर से दर्शन कराइये। दूसरी बार मन्दाकिनी के तट पर जब वे अपनी आँखे मूंदकर भगवान का स्मरण करते हुये ठाकुर जी के लिये चन्दन घिस रहे थे इसी बीच भगवान आये, उनकी कटोरी का चन्दन लेकर लगाने लगे, उसी समय हनुमानजी तोते का रूप धारण करके कहने लगे ‘चित्रकूट के घाट पर भई सन्तन की भीर, तुलसीदास चन्दन घिसे तिलक देत रघुवीर’ तुलसीदास ने आँख खोलकर देखा भगवान श्रीराम चन्दन लगा रहे हैं, उनको दर्शन तब हुआ जब गुरू रूप तोते ने दर्शन कराया, इसी प्रकार परब्रम्ह परमात्मा साधक का अपना आत्मा ही है जब तक गुरू का उपदेश नहीं मिलता तब तक ब्रम्हात्मैक्य का साक्षात्कार नहीं होता। गुरू और ईश्वर के द्वारा वरण किये जाने का एक रूप यह भी है। आध्यात्मिक मार्ग के पथिकों के लिये उपर्युक्त दृष्टान्त मार्गदर्शन कर सकता है। साधक के लिये अपनी साधना का लक्ष्य केवल ईश्वर की प्राप्ति होना चाहिये। मन से समस्त वासनाएं दूर हो जाने पर जब रामचरण की लो लग जाती है तब योगक्षेम की चिन्ता भगवान स्वयं करते हैं।
‘मन ते सकल वासना भागी, केवल राम चरण लो लागी।’
परमात्मा की प्राप्ति के लिये नि:स्पृह होना आवश्यक है। जो कर्मकाण्डात्मक वेद सकाम कर्मों के अनुष्ठान के फलस्वरूप परलौकिक सुख का वर्णन करते हैं, उससे नि:स्पृह होकर ही ब्रम्ह जिज्ञास हो सकती है।
जो साधक शास्त्रोक्त सदाचार का पालन नहीं करता, जिसका मन अशान्त है और साधना द्वारा सांसारिक फल की आकांक्षा रखता है, वह परमेश्वर के अभिमुख नहीं हो पायेगा, इसलिये जो अध्यात्म के साधक हैं, उनको शास्त्रोक्त वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार धर्म का पालन करना चाहिये।
यदि कर्म और भावना में वैषम्य रहा तो उसका परिणाम अशुभ हो जाता है जैसे हमारा कोई मित्र है, हम उससे प्रेम करते हैं पर उसके हित के विरूद्ध आचरण करते हैं तो वह प्रेम नहीं टिक पाता। हम भगवान् से प्रेम करते हैं पर भगवान् के बनाये हुये रास्ते पर नहीं चलते हैं तो हमारी लगन छूट सकती है।
- स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती
जगद्गुरू शंकराचार्य
ज्योतिष् एवं द्वारका शारदापीठाधीश्वर
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